उपन्यास, “1947, कुछ कही, कुछ अनकही, मगर मरना मना है,”
विभाजन के समय का सटीक खाका खींचता है
– हर्ष भारद्वाज –
नई दिल्ली ,“1947, कुछ कही, कुछ अनकही, मगर मरना मना है,” के लेखक डॉ. के.एस. भारद्वाज परमार्थ में इस सीमा तक भरोसा रखते हैं कि वे इस उपन्यास में एक ऐसे किरदार का सृजन करने में सफल हो जाते हैं जो ताजिंदगी परमार्थ को अपना स्थाई लक्ष्य बना लेता है. यह उपन्यास चेतन प्रवाह शैली पर आधारित है. मुख्य किरदार की चेतन प्रवाह यात्रा शुरू होती है बचपन से. उसे याद आती है उस छोटी मुस्लिम लड़की की जो मुख्य किरदार का पहला प्यार था और जो 1947 के विभाजन के कारण बिछुड़ कर एक दिन उसे फिर मिल गया था.
माँ के खिलाये पिलाये परमार्थ संबंधी संस्कार उसके काम आने लगते है. मुख्य किरदार बचपन से ही संवेदनशील है. वह एक दिव्यांग बालक जिससे सब नफरत करते हैं, को अपना साथी बनाता है और भरपूर कोशिश करता है कि उसे कोई कमी महसूस न हो. कालिज सहपाठी की आकस्मिक मौत पर वो कैसे हिल जाता है, उसे बयान करना आसान नहीं मगर महसूस किया जा सकता है. एक उदंड छात्र से वह कैसे निबटता है, वह बहुत ही रोचक है. छात्र मनोविज्ञान का चित्रांकन लेखक ने खूब किया है जो न केवल सटीक हैं बल्कि रोचक भी है.
मुख्य किरदार कहता है कि जन्म से लेकर मृत्यु तक, विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय जीवन में कितने ही किरदार आते हैं जो हम पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाते हैं. किशोर मनोविज्ञान, उस दौरान के रोमांच, गुरु-शिष्य धर्म और परम्पराओं और विभाजन की त्रासदी का चित्रण भी इस उपन्यास में खूब हुआ है. ये दो पंक्तियाँ, “मुल्क बँट गए. सियासतदानों को सियासत मिली और आमजन को मिली मौत और बरबादी,” उस दौर के बारे में बहुत कुछ कह देती है. एक अन्य किरदार के विभाजन पर विचार देखें, “वत्स, वो किसी एक की मौत नहीं थी.
वो इंसानियत की मौत थी. वो उस सभ्यता की मौत थी जिसे गंगा जमुनी तहजीब कहा जाता है. हम अपनों की मौत सह सकते हैं मगर इंसानियत की कभी नहीं.” दूसरी जगह वही किरदार कहता है, “इंसानियत के खून की नजीर है सुगंधा. न जानें ऐसी कितनी ही सुगंधायें होंगी?” सारांश यह कि यह उपन्यास, “1947, कुछ कही, कुछ अनकही, मगर मरना मना है,” विभाजन के समय का सटीक खाका खींचता है. यह रचना उनके लिए बहुत उपयोगी होगी जो आजादी मिलने के बहुत वर्ष बाद पैदा हुए और जिनको विभाजन की त्रासदियों का कोई ज्ञान नहीं.



