अरविन्द हारकर तो प्रवेश जीत कर भी मायूसी के दौर से नहीं निकल पा रहे बाहर

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अरविन्द
अरविन्द हारकर तो प्रवेश जीत कर भी मायूसी के दौर से नहीं निकल पा रहे बाहर

अरविन्द हारकर तो प्रवेश जीत कर भी मायूसी के दौर से नहीं निकल पा रहे बाहर

दिल्ली की सियासत से खुद को दूर नहीं रखना चाहते अरविन्द

– अश्वनी भारद्वाज –

नई दिल्ली ,जी हां हम बिलकुल सही कह रहे हैं और हमें यकीन हैं आप भी हमारी बात से सहमत होंगे | राजधानी दिल्ली की सियासत में बड़ा बदलाव आया,सत्ता परविर्तन हुआ भाजपा बुलंदी पर पहुंची आप पार्टी जमीन पर खिसकी | हां यदि किसी की सेहत पर फर्क नहीं पड़ा तो वह कांग्रेस रही | ना कल कुछ था ना आज मिला ,भविष की राम जाने | जिस तरह से आप पार्टी की जीत में पहले ,दूसरे तथा तीसरे चुनाव में अरविन्द का रोल था ठीक उसी तरह 27 साल बाद मिली भाजपा की जीत में प्रवेश साहिब सिंह वर्मा का बड़ा रोल था | बताते हैं कैसे ,अरविन्द नें जिस तरह पार्टी की स्थापना के बाद चेलेंज करते हुए मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के सामने चुनाव लड़ कर जीत दर्ज की थी ठीक उसी अंदाज़ में प्रवेश साहिब सिंह वर्मा नें नई दिल्ली सीट से अरविन्द को चुनोती दे चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की | जीत उन्हें ऐसे ही नहीं मिली इसके लिए उन्होंने साल भर तक जमीन पर उतर तैयारी जो की थी |

अरविन्द तो मुख्यमंत्री बने लेकिन प्रवेश मुख्यमंत्री तो क्या पार्टी नें उन्हें उप मुख्यमंत्री भी नहीं बनाया | यह बात अलग है उन्हें केबिनेट में स्थान दे उनका मान रखा , प्रवेश नें एक अनुशासित कार्यकर्ता होने का रोल निभाते हुए भले ही जुबा बंद रखी लेकिन मन ही मन असंतोष झेलने पर मजबूर रहे | और शायद यही वजह है उनके चेहरे से मुस्कान गायब है | यह बात अलग है वे यह चर्चा किसी से नहीं करते और अपने काम में भी जुट चुके हैं लेकिन उनके समर्थकों के दिल में अभी भी कसक बाकी है |

मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनाया इसकी चर्चा बाद में करेगें लेकिन उप मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनाया इसके पीछे यह माना जा रहा है भविष्य में भी पार्टी उन्हें मुख्यमंत्री के लिए दावेदार नहीं बनाना चाहती हालंकि अभी यह चर्चा उचित नहीं है लेकिन भाजपा दिल्ली में एक कार्यकाल के दौरान ही तीन-तीन चेहरे बदल चुकी है यह किसी से छिपा नहीं है | समझ गए ना आप भाजपा नाकामयाबी पर चेहरा बदलने से गुरेज नहीं करती और उसके लिए पहले से ही विकल्प भी तैयार नहीं करती |

अब बात अरविन्द की भी कर लेते हैं अरविन्द को यह अच्छे से आभास था इस बार उनकी राह आसान नहीं है लेकिन मैदान छोडकर भागना उनकी फितरत में नहीं है लिहाजा वे नई दिल्ली से ही लड़े | अरविन्द को यह एहसास बिलकुल नहीं था की उनकी पार्टी सरकार नहीं बना पाएगी ,उन्हें उम्मीद थी उनकी पार्टी की वापसी होगी भले ही वे चुनाव हार जाए लेकिन मुख्यमंत्री तो वे ही बनेगें | लेकिन ऐसा नहीं हो सका हार से ज्यादा परेशानी अरविन्द को यह है ,भले ही
विधानसभा में उनकी पार्टी के 22 सदस्य जीत कर पहुंचे हैं लेकिन एक नें भी उन्हें यह दिलासा नहीं दिया मैं आपके लिए अपनी सीट छोड़ने के लिए तैयार
हूँ |

जाहिर सी बात है दिल्ली से अपनी सियासत शुरू करने वाले अरविन्द दिल्ली की अपनी कर्मभूमि नहीं छोड़ना चाहते लेकिन उनके सामने कोई दूसरा रास्ता फिलहाल तो नजर नहीं आता | यह बात अलग है उनकी पार्टी का कोई शूरवीर उनके लिए देवदूत बनकर सामने आ जाए | शांत तो अरविन्द भीं नहीं बैठने वाले कुछ ना कुछ जुगाड़ भिड़ा लेंगे इस सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन इसमें कोई दिस दैट नहीं है की अरविन्द राज्यसभा से ज्यादा
दिल्ली की विधानसभा में दिलचस्पी लेना चाहेगें क्योनी वे दिल्ली की सियासत से खुद को लम्बे समय तक दूर नहीं रखना चाहते | आज बस इतना ही …

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