
पवित्रता: सनातन धर्म का आधार
सनातन धर्म में पवित्रता का विशेष महत्व है। पवित्र शब्द का निर्माण “पवि” और “त्र” से हुआ है। “पवि” का अर्थ वज्र और “त्र” का अर्थ रक्षा है। वज्र का प्रहार निष्फल होता है, और देवता के कोप से बचने के लिए पवित्र रहना आवश्यक है।
देव संस्कृति और पवित्रता का संबंध
देव संस्कृति के अनुयायी पवित्रता को अपनी रक्षा का कवच मानते हैं। परमाराध्य परमधर्माधीश उत्तराम्नाय ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती 1008 ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि पवित्रता से ही देवताओं का सान्निध्य प्राप्त किया जा सकता है।
पवित्रता के तीन स्तर
किसी भी वस्तु के तीन स्तर होते हैं:
- आधिभौतिक: भौतिक शुद्धता।
- आधिदैविक: दैविक रूप से पवित्रता।
- आध्यात्मिक: आत्मा की शुद्धता।
जो वस्तु निर्मल, निर्दोष और निष्पाप होती है, वही पवित्र कहलाती है। देवता केवल पवित्र वस्तुओं का उपभोग करते हैं।
पवित्रता बनाए रखने के उपाय
- भगवद्स्मरण और नामोच्चारण: भगवान का स्मरण और नाम का उच्चारण पवित्रता को बढ़ाता है।
- भवन्नाम चिंतन: भगवान की लीलाओं का चिंतन हमें अपवित्रता से दूर करता है।
- आचार-विचार: खान-पान, स्नान-ध्यान और व्यवहार में पवित्रता बनाए रखें।
अपवित्रता से बचाव का महत्व
अपवित्रता से बचना दैवी सान्निध्य प्राप्त करने के लिए अत्यंत आवश्यक है। देवताओं की उपासना के लिए पवित्रता सर्वोपरि है। “अपवित्रः पवित्रो वा” जैसे मंत्रों का उच्चारण हमें आंतरिक शुद्धता प्रदान करता है।
चर्चा और धर्मादेश
इस विषय पर विचार-विमर्श के लिए आयोजित सत्र में रितु त्रिपाठी, अरविंद भारद्वाज, संजय मिश्र, साध्वी सोनी और अन्य गणमान्य व्यक्तियों ने भाग लिया। परमाराध्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने धर्मादेश जारी किया, जिसे सभी ने हर-हर महादेव के उद्घोष के साथ स्वीकार किया।
निष्कर्ष
सनातन धर्म में पवित्रता को देवताओं का सान्निध्य पाने का मार्ग बताया गया है। दैविक कृपा प्राप्त करने के लिए हमें पवित्रता बनाए रखने के प्रति सतर्क रहना चाहिए। यह न केवल आध्यात्मिक उन्नति का माध्यम है, बल्कि समाज के लिए भी आवश्यक है।